‘ला प्लासा देल दियामान्त’ का हिंदी रुप – हीरा चौक
(मूल काताला कृति, अनुवादक – समीर रावल, प्रकाशक – कान्फ्लुएंस इन्टरनेशनल, नई दिल्ली)
समीर रावल
एक हिंदी पढ़ने वाला जब ‘ला प्लासा देल दियामान्त’ जैसे उपन्यास से परिचित होता है तब साहित्य के सर्वत्र व्यापी प्रभाव की धारणा मज़बूत हुए बगैर नहीं रह सकती है। हालांकि पढ़ने वाला या वाली जानते हैं कि उपन्यास का देश-काल भिन्न है, जहाँ की संस्कृति व विचारों की जानकारी उसे नहीं है, उपन्यास की मूल भाषा अलग है व उसकी ऐतिहासिक, भाषाई, सामाजिक वगैरह स्थिति उपन्यास की स्थिति से मीलों, कोसों दूर है। परंतु तब भी आनंद की बात है कि उपन्यास साफ़ पानी की तरह स्पष्ट है। उपन्यास आसानी से समझा जा सकता है व यहाँ समझ का मतलब है उसका आत्मसार करना, न केवल सतही तौर पर, जहाँ हिंदी में रुपांतरण बहुत ही महत्त्वपूर्ण है, किंतु गहन स्तर पर, उपन्यास के स्रोत को छूते हुए, जानना वह जो लेखिका (मर्से रुदुरेदा) हमें बताना चाहती हो, एक तारतम्यता से गाए हुए राग की तरह, उपन्यास की आत्मा व अपने अंतःकरण के बीच एक जीवंत संपर्क बनाना।
दूसरे शब्दों में कहा जाए तो ऐसा नहीं लगता है कि उपन्यास में घटने वाली घटनायों का देश-काल अबूझा है व हज़ारों किलोमीटर दूर पर स्थित है जहाँ पर लोग एक पूर्ण अंजान विदेशी भाषा बोलते हैं; यह तो हिंदी भाषी संसार में भी बिना किसी मुश्किल से घट सकता था। वह महिला हो सकती थी जो कोने वाले मकान में रहती है, यहाँ का एक गृह-युद्ध हो सकता था, या फिर यहाँ का एक गरीब परिवार जिसके मुखिया की मृत्यु हो चुकी हो। पात्र भारत के लिए भी बहुत असली है, चाहे भले ही वे कहीं और रहते हों। वे जो कुछ भी सोचते हैं, बोलते हैं या फिर करते हैं बिल्कुल समझ में आता है। सामाजिक, बौद्धिक या नैतिक चेतनायों के चलते इनमें से कुछ घटनायों को शायद यहाँ घटने की अनुमति नहीं मिले या फिर उन्हें नीची दृष्टि से देखा जाए, या फिर दूसरी ओर शायद उनकी प्रशंसा तक होए, पर फिर भी समाज में हमेशा ऐसा कुछ तो होता ही रहता है जिसे मान्यता नहीं मिलती है, हालांकि एक स्तर पर शायद इस मान्यता की फिर ज़रुरत भी नहीं रहती है। उपन्यास पढ़कर लगता है कि हम खुद भी एक अलग देश-काल में यही कर रहे होते।
कुछ नतीजे निकाले जा सकते हैं। परिकृष्ट साहित्य, इंसानी मन-मस्तिष्क व प्रकृति में पारंगत, व उपन्यास के भीतर व पढ़ने वाले के भीतर के बीच पुल बनाने में सक्षम। मानवीय अंतःकरण के भावों की सर्वत्र व्यापकता, जो रचना को पढ़ने योग्य रूप देती है, अलग-अलग भाषायों व संस्कृतियों में। विभिन्न संस्कृतियों व लोगों के बीच आपसी समझ की संभावित असंभावना के विचार पर से बादलों का छटांव। रुपांतरित रचना के पढ़ने वालों व मूल भाषा संस्कृति के मध्य जीवंत संपर्क, रचना को आधार बनाकर। आनंदमय संतुष्टता।
उपन्यास ‘विदेशी’, ‘विभिन्नता’ जैसी धारणायों को भी स्वीकार करने की शक्ति देता है। इस बात पर ध्यान देना है कि इस भिन्नता को भिन्नता ही समझा जाए, न कि मिलती-जुलती संबंद्धता। किसी को समझना उसको अपने अंदर निहित करना होता है, उसकी सारी भिन्नतायों समेत, इसका मतलब एकरूपीकरण कतई नहीं होता है, व होना भी नहीं चाहिए। ‘हीरा चौक’ यह ध्येय भी प्राप्त करता है।